मंगलवार, अप्रैल 15, 2025

कन्यादान क्यों होता है? जबकि बेटी दान की वस्तु नहीं है।

बचपन से ही मैं यह शब्द सुनती आ रही हूँ और इस शब्द को जितना मैं समझ पाती थी उस लिहाज से यह बड़ा अटपटा सा लगता था कि विवाह के समय, इतने नाजो से पालने-पोषणे के बाद माता-पिता अपनी बेटियों का दान क्यों कर देते हैं। हिन्दु धर्म में ऐसी रीति क्यों बनाई गयी हैं? इसका क्या महत्व हैं और इसका उदभव कहाँ से हुआ है? ऐसे प्रश्नो का आना भी स्वाभाविक ही था क्योकि लोग तो यहाँ तक कहते है कि कन्यादान सबसे बड़ा दान है और जो भी कन्यादान करते हैं उन्हे स्वर्ग मिलता हैं पर क्या यह सम्भव है ?

और अगर ऐसा ही है तो जो दान देते है वह बड़े कहे जाते है और जो दान लेते है वो छोटे लेकिन हमारे समाज में तो कुछ और ही दखने को मिलता है क्यों यहां कन्या दान देने वाला झुक कर और दान लेने वाला स्वाभिमान में रहता है?

अगर यह ही धर्म में है तो क्यों फिर पत्नी को अर्धागिनी कहा गया है, माता पार्वती भगवन शिव की अर्धागिनी कही जाती है जिसका मतलब यह है कि पत्नी को पति के बराबर का दर्जा मिला है और कोइ दान हुई वस्तु सामान समझी जाने वाली नारी को बराबर का दर्जा कैसे मिल सकता है?

कन्यादान गीत सुनें:- चौका बइठल बेटी रोयेली, झल झल झलकेला, अरे ! रोवेलें जनक हो पापा, मड़वा के कचर मचर

जैसा क़ी हम सब जानते है दान की हुई वस्तु पे दान के बाद हमारा कोई हक़ नहीं रह जाता, तो फिर क्यों माता -पिता का कलेजा मुँह को आ जाता है अगर उनकी बेटी को ससुराल में किसी भी प्रकार की परेशानी होती है और वो हक़ से खड़े हो जाते है।

और अगर ऐसा ही है कन्या एक दान की वस्तु ही है तो फिर क्यों शास्त्रों में पति से पहले पत्नी का नाम लिया जाता है जैसे -सीता राम या राधा कृष्ण।

कन्यादान सच में कन्या का दान ही है तो उपर्युक्त सारी बातें व्यर्थ होनी चाहिए पर ऐसा क्यों होता है? ऐसा नहीं होना चाहिए पर जहाँ तक मुझे लगता है कन्यादान का अर्थ हमने गलत समझ लिया है। कन्यादान का सही मतलब सिर्फ दान के सन्दर्भ में ही समझना क्या सही होगा?

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कन्यादान का भी अलग महत्व है, इस सन्दर्भ में ऐसा माना जाता है कि पिता अपनी पुत्री का हाथ वर को यह सोच कर सौपता है कि अब से यह उसकी जिम्मेदारी है एक पति के रूप में हमेसा उसका साथ देगा और उसके घर वाले कन्या को अपनी बेटी के रूप में अपनाएंगे।

मैं अंत में बस इतना कहना चाहूंगी की हर रश्म की कुछ अच्छाइयाँ या बुराइयाँ हो सकती है पर उसे पूरी तरह से गलत ठहराना भी सही नहीं होगा क्योकि ये हम पर है कि हम उसे किस प्रकार लेते है। बदलते समाज के साथ बहुत कुछ बदलाव हो रहा है और ऐसी रस्मो का भी स्थान खो रहा है।

मैं इसका निष्कर्ष आप सभी पर छोड़ना चाहूंगी आप सभी क्या सोचते है कमेंट कर के जरूर बताएं।

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